Saturday, 27 November 2010

उड़ती पतंग की डोर कट गयी..

ना  जाने  किस  छत  पे  जा  गिरा  होगा 
उस  पतंग  की  किस्मत  का  भी  क्या  कहना  ..
मिला  भी  तो पतंग बनाने वाले  को 
फिर से नया करके उसको  
बेच दिया कुछ सिक्को में, 
एक नयी पहचान एक नया रूप लेकर
फिर से वही पतंग अब नया होकर 
हवा में सर सर उड़ने लगा था 
छूता वो उँची इमारतों से ऊँचा उस गगन को 
झूम रहा हो, जैसे बारिश में मोर मगन हो 
नया जोश था उसमे और नई उमंग भी थी
अकेले ही रणभूमि में अब वो उतर चुक था 
एक एक करके उसने कितनो को काटा
पूछ  और बिनपूछ रंग बिरंगे प्यारे प्यारे  
मदमस्त पवन के झोके के साथ् उड़ने वाले हरेक पतंग को
अपना प्रतिद्वन्दी मान चुका था,
याद अचानक फिर उसको कुछ आ चुका था 
कि कभी उसको भी किसी ने काटा था 
कितने टुकरों में बांटा था
आभास जब हुंआ तो फुट-फुट कर रो पड़ा
भटक गया था जो कुछ  पल के लिये 
आज वही पतंग फिर से जुड़ गया 
उन्मुक्त गगन में बिन डोर के कहीं दूर उड़ गया !!
                                                     
                                                  अंजलि सिंह  

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