Saturday 24 September 2011

है क्यू मेरे अंतर्मन् में, एक प्रतिद्वन्द सा चलता
जब भी गले लगाना चाहूँ तुझे, क्यू ये आग उगलाता
सूरज कि गर्मी सी गर्मी
चांद सी तेरी थंडक है
फिर ना जाने किस और चला तू
वो तो तेरे अंदर है..

लहर समेटे, आशओं कि
कहाँ चला कब किसे पता
कि क्यू अन्तर्मुखी, कभी
बहर्मुखी खुद को सिद्ध करता तू,
तू ही तो है उसका दर्पण
भला व्यर्थ में चिन्ता करता क्यू

क्या लाये थे इस जीवन में
जो तुझको खोने कि शंका है
इस क्षण-भंगुर से जीवन पर
अभिमान सभी को होता है
लोभ, क्रोध, इर्षा, छल-कपट को
क्यू हार्दिक निमंत्रण देता है

ज़रा भीतर झाँक के देख सही
रावण-रुपी आज भी वास क्या करता है
हम भी नही सच् , सच् तुम भी नही
सत्य-सच्चिदानंद तो सिर्फ एक वही
कर दो समर्पण अंजलि भर कर
हृदय खोल श्रद्धा से सब दिए चलो !!

अंजली