बारिश कि निर्मल बूंदें
खिड़की से अंदर झाँकती हुई
याद दिला गयी बचपन की
शैतानियों से भरे लड़कपन की,
मचती थी होड़ कागज़ के नाव बनाने की
लगती थी रेस सबसे आगे निकल जाने की
कुछ गड्ढों में फस जाते, तो
कुछ पानी में डूब जाते थे,
निकल पड़ते घरों के छत पर
खेलते, खिलखिलाते, कुछ गाते गुनगुनाते
हरे सावन से खेलता सा
अठखेलियाँ कर बारिश को गले लगाते ,
मिटटी में सनकर ये बूँदें
सबके मनन को है लुभाता .
सोंधी सी खुशबू बिखेरे
धरती की त्रिप्ती मिटाता
जब-जब ये बूंदे बारिश की
रिम-झिम रिम-झिम बरसती है
तब-तब ये पागल मन मेरा
अपने लोगों से मिलने की उत्साह को दुगुना करती है!!